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तेरी डिग्रियां जंग खा गई है – बेकार पड़ा हो लोहा जैसे ।
बेरोजगार जी रहे हैं जीवन मनोरोगी बन गये हों जैसे ।
उस छैनी को क्या कहिये जो बिना धार पड़ी हो जैसे ।
लोग पूंछते हैं तजुर्बा क्या है पहले काम दो बेगार हो जैसे ।(1)
मेरी हसरत कहीं खों गई – ढूंढ़ रहा हूँ अनजान हूँ जैसे ।
खो गई है जवानी मेरी – रह गई छाछ बिना मक्खन जैसे ।
ऐ खाक जवानी तुझे आवाज न दूँगा -हालत हो गई बुढ़ापा हो जैसे ।
अर्श से क्यों माँगू खुशी -तेरी बदुआ भी लगती है दुआ हो जैसे ।(2)
आ तुझको गले लगा लूँ बदनसीबी की परछाई हो जैसे ।
जों बिंध गया सो मोती -बाकी लगे पत्थर हों जैसे।
नौकरी सरकारी मिली नहीं, बेरोजगार भत्ते की उम्मीद हो जैसे ।
मायूस है डिग्री मजबूर कदम कहीं खो गई डगर हो जैसे ।(3)
सोचता हूँ जाति धर्म बदल लूँ अपना लगे आरक्षण खत्म हो जैसे ।
सपने सजो रहा हूँ कैसे, जब खार चुभ रहे है दिल में जैसे ।
फायदें मिलेंगे क्या -क्या खुशी है जैसे बीo पीo एलo कार्ड मिला हो जैसे ।
ऊँच- नीच का भेद अब जाना, एo पीo एलo हार गया हो बीo पीo एलo से जैसे ।(4)
डाo हिमांशु शर्मा (आगोश )
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